22 अगस्त ....... चार बाग़ लखनऊ का अंधा भिखारी ......
वो
वहाँ लखनऊ के चारबाग स्टेशन के मेन हॉल में खडा था । तभी एक बुज़ुर्ग उसके
बगल से निकले । संभ्रांत ....... well dressed ....... वो उसे देख के ठिठके
। दो कदम वापस लौटे । मैं भी रुक गया । उन्होंने जेब से सिक्का निकाला और
उसके हाथ में थमा दिया । और चल दिए । पहले तो उसकी समझ में ही न आया ।
क्या ? ये क्या है ? मैंने कहा , पैसा ........ पैसा ? उसे कुछ क्षण लगे ये समझने में की कोई उसके हाथ में पैसे थमा के चला गया । सिर्फ क्षण भर के लिए वो सकुचाया । फिर उसने वो मुट्ठी भीच ली । मैं सामने खडा देख रहा था । मैंने कहा वो तुम्हे भीख दे गया । इतना सुनते ही वो प्रतिकार की मुद्रा में आ गया । उसने मुट्ठी और कस के भीच ली । फिर वो पैसे जेब में डाल लिए । पूरा घटनाक्रम मात्र दस सेकंड में ख़त्म हो गया । वो बुजुर्ग आगे निकल गए थे । मैंने उन्हें जा पकड़ा । He was not a begger . उन्हें कुछ समझ नहीं आया । मैंने उन्हें याद दिलाया ......अभी आप जिसे वो सिक्का दे के आये है ..... वो भिखारी नहीं था । but he was blind . इस से क्या फर्क पड़ता है । वो अंधा ज़रूर था ,पर भिखारी नहीं था । But we should help blind people . But you did not help him . you made him a begger . उस दो रु के सिक्के ने उसे भिखारी बना दिया । आपने उसे भिखारी बना दिया । बुज़ुर्ग अड़ गए । बहस की मुद्रा में आ गए । मैंने उन्हें सिर्फ इतना कहा .......काश आपने उसकी भिची हुई मुट्ठी देखी होती । आपने उसे भिखारी बना दिया ।
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Saturday, September 27, 2014
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