Monday, July 14, 2014

अरविंद केजरीवाल ने एसएमएस फेसबुक और लिखित जनमत-संग्रह यानि रेफेरेंडम का सहारा लेकर न सिर्फ चुनाव का मजाक उड़ाया है बल्कि देश में एक ऐसी प्रथा की शुरुआत की है जिसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा. मीडिया और एक्सपर्ट अतिउत्हास में इस खतरनाक रेफरेंडम का मतलब नहीं समझ पा रहे हैं.. कल अगर अलगाववादी इसी तरह का रेफेऱेंडम कश्मीर में कराने लग जाएं तो क्या होगा? अगर कोई रामजन्मभूमि मुद्दे पर ऱेफेरेंडम कराने लग जाए तो क्या होगा? आतंकवादियों को इस्लाम से जोड़ कर देखने को सही बताने पर अगर कोई रेफेरेंडम करने लग जाए तो क्या होगा? हिंदी को अनिवार्य करने के लिए रेफेरेंडम कोई कर ले तो क्या होगा? केजरीवाल ने मुर्खतापूर्ण और सत्ता पाने की होड़ में ऐसी प्रथा को जन्म दिया है जो भारत को एक झटके में खंड खंड कर सकता है.

अरविंद केजरीवाल जो कर रहे हैं वो डेमोक्रेसी नहीं मोबोक्रेसी है... प्रजातंत्र नहीं भीड़तंत्र है... यह इस बात का सबूत है कि अरविंद केजरीवाल अभी भी सरकारी बाबू ही है.. ये खुद कोई फैसला नहीं ले सकते हैं.. एक सरकारी बाबू की तरह यह आदमी हमेशा फैसले को दूसरे पर टालने में विश्वास करता है.. यह मान लेना चाहिए कि हर कठिन सवाल पर यह आदमी भाग खड़ा होगा.. जनता के नाम पर ये अपनी खामियों को छुपा रहा है.. क्योंकि असल में जनता का नेता वो होता है जो कठिन से कठिन फैसला खुद लेता है...

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