Monday, July 14, 2014

मित्र Umesh Singh B Positive ने ग्रामीण जीवन से लुप्त हो चुके देसी मोटे अनाजों पे आज एक पोस्ट डाली है . पहले सोचा की उसपे कमेंट लिखूं . फिर लगा की एक पोस्ट ही लिख डालता हूँ और उसे ही उनके कमेंट बॉक्स में चेप दूंगा . 

बात उन दिनों की है जब मैं मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में पोस्टेड था और वहाँ दूर दराज़ के गाँवों में ज़मीन कौड़ियों के भाव थी तो मैंने भी एक उपद्रव फान दिया था और ज़मीन खरीद कर किसानी शुरू कर दी थी . गाँव से दूर खेत में ही एक मिटटी का मकान बना कर हम रहते थे . सबसे नज़दीक बाज़ार लगभग 8 किलोमीटर दूर था . हफ्ते में एक चक्कर लगता था . बाकि ज़रुरत का सामान दो किलोमीटर दूर गाँव की एक छोटी सी दूकान से ले आते थे . एक दिन चावल नहीं थे तो मैं दुकान पे गया . दुकानदार ने चावल दिखाया तो mood off हो गया . अजीब सा मोटा सा लाल रंग का चावल था . मैंने उस से कहा की कोई कायदे का हो तो दे दो . दुकानदार बोला , बाबू जी यही है . क्या करते . मजबूरी में वही ले लिया , एक किलो .

घर आया तो माँ ने कहा ये क्या उठा लाये ? मैंने कहा यही मिला और अब जो मिला उसे ही बना लीजिये . कल बाज़ार से दूसरा ले आयेंगे . खैर साहब चावल बना . और जब खाने बैठे और पहला कौर मुह में डाला तो यूँ लगा मानो किसी ने मिश्री घोल दी हो मुह में . इतना मीठा और इतना स्वादिष्ट की पूछो मत . उत्तर प्रदेश में हमारा इलाका rice bowl कहलाता है और वहाँ दुनिया का सर्वश्रेष्ठ चावल पैदा होता है पर छतरपुर के उस मोटे देसी चावल के आगे दुनिया की कोई भी महँगी से महँगी बासमती पानी भरती . सबने वाह वाह करते खाना खाया .

अगले दिन सुबह सुबह 6 बजे ही मैं दुकान पे जा धमका . उस से पूछा कौन सा चावल है कहाँ से आया और दूकान में कुल कितना है तुम्हारे पास . पहले तो बेचारा दुकानदार घबरा गया . कही कोई बात तो नहीं हो गयी . फिर उसने बताया की कोई किसान दे गया था किसी दूर के गाँव से . वो इलाका चूँकि rice बेल्ट नहीं था इसलिए बस यूँ ही किसी तालाब के किनारे अपने आप ही उग आया होगा . सो उस किसान ने कूट के यहाँ पहुंचा दिया . कुल 35 किलो था . वो मैंने पूरा ले लिया . बीज ढूँढने की कोशिश की पर नहीं मिला . जीवन में फिर कभी वैसा चावल भी खाने को नहीं मिला .

हमारे गाँवों में न जाने कितने ऐसे मोटे अनाज और हरी पत्तेदार सब्जियां और फूल पत्तियाँ जडें हुआ करती थी जिन्हें हमारे पूर्वज खाया करते थे . industrial agriculture उन सभी अनाजों को और वनस्पतियों को खा गयी . अब तो सब्जी के नाम पर सिर्फ भिन्डी मटर और गोभी रह गयी है और अनाज के नाम पर गेहूं चावल . एक बार इंडिया टुडे में एक लेख पढ़ा था की मुंबई में कही एक हाट लगा करती थी जहां गाँव से महिलाएं बीसियों किस्म के फूल और पत्तियाँ ले कर आती थीं और लोग बड़े चाव से उनकी सब्जी खाते थे . पर धीरे धीरे वो कल्चर ही समाप्त हो गया . उन्होंने वो फोटो भी छापी थी जहां ५ -७ औरतें अब भी सड़क के किनारे बैठ कर वो सब्जियां बेच रही थीं और उन्होंने बताया की कुछ गिनी चुनी बूढी औरतें अब भी आती हैं और इन्हें ले जाती हैं . नयी पीढी तो सिर्फ मटर और भिन्डी खा के खुश है . पर मुझे ख़ुशी है की मैंने अपने बच्चों को हर किस्म का अनाज पत्ते और सब्जियां खाना सिखाया है .

आप भी कभी मोटा अनाज और कोई नयी किस्म की सब्जी खा के देखिये ......आपको भी आनंद आयेगा .

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